Good Bye Review: रश्मिका मंदाना-अमिताभ बच्चन की ये फिल्म एंटरटेनमेंट के साथ मन में खड़े करती है कई सवाल

Rashmika Mandana Film: बीते कोरोना के दौर में जिस तरह से मृत्यु को लोगों ने नजदीक से महसूस किया, वह बॉलीवुड फिल्मों का विषय बन गई है. एक समय यह आर्ट हाउस फिल्मों का विषय हुआ करता था, लेकिन हाल के वर्षों में इस पर वेटिंग (2015), राम प्रसाद की तेरहवीं (2019) और पगलैट (2021) जैसी फिल्में बनी हैं. गुड बाय उसी की अगली कड़ी है. यहां परिवार के केंद्र की धुरी गायत्री भल्ला (नीना गुप्ता) की मृत्यु के मातम से लेकर तमाम मुद्दों पर बहस और कनफ्यूजन है. लेखक-निर्देशक विकास बहल ने फिल्म को कॉमेडी और इमोशंस के ताने-बाने से बुना है. लेकिन बीच-बीच में वह बेअसर हो गए हैं. बॉलीवुड फिल्मों में अपर-मिडिल क्लास या रईसों के परिवार अक्सर टूटे-बिखरे हैं और किसी की किसी के साथ नहीं बनती. गुडबाय में भी लगभग यही स्थिति है. ऐसी फिल्मों में अंत आते-आते सब एक-दूसरे की भावनाओं को समझते हुए करीब आ जाते हैं.

 

Good Bye Review
Good Bye Review

 

थोड़ा इमोशन थोड़ी कॉमेडी

हरीश भल्ला (अमिताभ बच्चन) और गायत्री के चार बच्चे हैं. चारों वयस्क हैं. कोई दूसरे शहर में है तो कोई दूसरे देश में. अचानक गायत्री की मृत्यु हो जाती है और एक भी बच्चा उसके पास नहीं. किसी का फोन चार्जिंग पर था, तो कोई ऑफिस के काम में व्यस्त. सबकी अपनी जिंदगी है. इसके बावजूद चार में तीन लौट कर आते हैं. यहां कहानी का फोकस है बेटी तारा (रश्मिका मंदाना) पर. मां के अंतिम संस्कार की तैयारियों को देखते हुए वह पिता पर खीझ उतारने लगती है कि परंपरा और संस्कारों के नाम पर जो कुछ हो रहा है, मां होती तो इसे कतई बर्दाश्त नहीं करती. यहां से तनाव शुरू होता है. करन (पावेल गुलाटी) अपनी विदेशी पत्नी (एली अवराम) के साथ आता है और उनकी अपनी निजी जिंदगी का ट्रेक भारतीय संस्कारों से अलग चलता है. फिल्म में विकास बहल ने मां के मृत्यु के बाद पिता और उसकी संतानों में तनाव के जो दृश्य लिखे, वे हैरान करते हैं कि क्या वाकई इनकी यहां जरूरत है. अपने मूल आइडिया में कहानी रोचक होने के बावजूद पटकथा में बिखरती है. लेखक-निर्देशक थोड़ा इमोशन, थोड़ी कॉमेडी वाले फार्मूले को पकड़ कर आगे बढ़ते हैं.

थोड़ी संवेदना जरूरी

‘साइंस या संस्कार’ की बहस में पड़ी कहानी को बीच में सुनील ग्रोवर सहारा देते हैं और उनकी उपस्थिति दर्शकों को राहत देती है. पंडित के रूप में वह फिल्म में सबसे अलग उभरते हैं. एक तरह से वह कहानी के भी मध्यस्थ बनते हैं और इसे संतुलित करने की कोशिश करते हैं. मगर इससे फिल्म को खास फायदा नहीं होता. जिसकी बड़ी वजह है स्क्रीन प्ले. इसमें उतार-चढ़ावों के बीच भल्ला परिवार की कई बातें खुल कर सामने नहीं आतीं. आप समझ नहीं पाते कि हरीश और गायत्री ने एक ही बच्चे को गोद लिया था या फिर सारे ही उनके गोद लिए हुए हैं. शुरुआती तनाव बीच में अचानक पिघल जाता है, सबका हृदय परिवर्तन हो जाता है. यह कैसे होता है मालूम नहीं चलता. मातम के दौर में बेटे को डांटते हुए अमिताभ का यह डायलॉग पारिवारिक ड्रामा में बुरी तरह चौंकाता है, ‘अमरीकी हो गए हो तुम. वहां होता होगा यह सब. सुबह मां की अर्थी का योग और रात को संभोग.’ फिल्म में शव और मातम में शामिल लोगों के माध्यम से जिस तरह से कॉमेडी पैदा करने की कोशिश है, वह यही बताता है कि मुद्दे को कुछ और संवेदनशील ढंग से देखे जाने की जरूरत थी.

 

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Goodbye Review जहां तक परफॉरमेंस की बात है तो अमिताभ बच्चन और नीना गुप्ता सबसे शानदार हैं. नीना कहानी में जगह-जगह फ्लैशबैक में आती हैं और दिल चुरा लेती हैं. जबकि अमिताभ ने पत्नी की मौत से दुखी पति और बच्चों के नाराज पिता की भूमिका खूबसूरती से निभाई है. अस्थि विसर्जन के समय का एक मोनोलॉग दर्शकों के दिल में उतर जाता है. रश्मिका मंदाना का यह बॉलीवुड डेब्यू है. वह इसमें नेशनल क्रश की तरह नहीं लगतीं. उनके संवादों में भी साउथ इंडियन टच झलकता है. जबकि भल्ला परिवार पूरी तरह से नॉर्थ में सैटल है. पावेल गुलाटी के हिस्से में कुछ अच्छे दृश्य हैं और उन्होंने इन्हें अच्छे से निभाया है. जयकाल महाकाल गीत अच्छा है और कैमरावर्क भी. राइटिंग और निर्देशन, दोनों में विकास भल्ला को अपनी कल्पना को कुछ ऊंचा उठाने की जरूरत थी. उनके ऐसा न कर पाने से फिल्म औसत रह जाती है. फिल्म में कुछ भावुक पल जरूर अच्छे हैं, लेकिन अधिकतर समय सिनेमाई लीक पर ही चलती है. आज सुबह सीनियर एक्टर अरुण बाली के निधन की खबर आई है. उन्हें इस फिल्म में नीना गुप्ता के पिता की भूमिका में देखा जा सकता है. उनके दिल को छूने वाले कुछ दृश्य यहां हैं.

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