जलियांवाला बाग़ हत्याकांड एक शुरूआती चिंगारी थी जिसने भारत की स्वतंत्रता का नेतृत्व किया

जलियांवाला बाग नरसंहार को इतिहास का सबसे बड़े गोलीकांड माना जाता है, जो ब्रिटिश शासन की क्रूरता का गवाही देता है. कहा जाता है कि करीब 102 साल पहले 1919 में 13 अप्रैल को हुए इस हत्याकांड 1,650 राउंड फायरिंग हुई, जिसमें 379 लोगों की मौत हुई. वैसे ये तो ब्रिटिश सरकार का सरकारी आंकड़ा है, लेकिन कई लोगों को मानना है कि इसमें 1000 से ज्यादा लोगों को जान गई थीं।

जलियांवाला बाग हत्याकांड भारत के इतिहास से जुड़ी हुई एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना है, जो कि साल 1919 में घटी थी. इस हत्याकांड की दुनिया भर में निंदा की गई थी. हमारे देश की आजादी के लिए चल रहे आंदोलनों को रोकने के लिए इस हत्याकांड को अंजाम दिया गया था. लेकिन इस हत्याकांड के बाद हमारे देश के क्रांतिकारियों के हौसले कम होने की जगह और मजबूत हो गए थे. आखिर ऐसा क्या हुआ था, साल 1919 में जिसके कारण, जलियांवाला बाग में मौजूद बेकसूर लोगों की जान ले ली गई थी, इस हत्याकांड का मुख्य आरोपी कौन था और उसे क्या सजा मिली थी? इन सब सवालों के जवाब आपको इस लेख में दिए गए हैं।

जलियांवाला बाग हत्याकांड कब हुआ |
स्वतंत्रता के लिए भारत के संघर्ष में जलियांवाला बाग हत्याकांड, एक महत्वपूर्ण मोड़ था| आइये जानते हैं जलियांवाला बाग हत्याकांड कब हुआ , इसके पहले की राजनीतिक पृष्ठभूमि और जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद का इतिहास

क्या था जलियांवाला बाग हत्याकांड
अमृतसर का नरसंहार, जिसे जलियांवाला बाग हत्याकांड के नाम से जाना जाता है, 13 अप्रैल, 1919 की घटना है, जिसमें ब्रिटिश सैनिकों ने भारत के पंजाब क्षेत्र (अब पंजाब राज्य में) के अमृतसर में जलियांवाला बाग के रूप में जाना जाने वाले एक खुले स्थान पर निहत्थे भारतीयों की एक बड़ी भीड़ पर गोलीबारी की, जिसमें कई सौ लोग मारे गए और सैकड़ों और घायल हुए थे|

जलियांवाला बाग नरसंहार की राजनीतिक पृष्ठभूमि
प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के अंत तक, भारतीय आबादी के बीच उम्मीदें थीं कि ब्रिटिश दमन कम होगा और भारत को अधिक राजनीतिक स्वायत्तता दी जाएगी| भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को भी यही लगता था कि प्रथम विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद भारत को स्व-शासन प्रदान कर दिया जाएगा| 1918 में ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत मोंटेगु-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट में सीमित स्थानीय स्व-शासन की सिफारिश की गई| लेकिन अंग्रेजों की इससे अलग योजनाएं थी| 10 मार्च, 1919 को रॉलेट एक्ट (ब्लैक एक्ट) पारित किया गया, जिसमें सरकार को राजद्रोही गतिविधियों से जुड़े किसी भी व्यक्ति को बिना किसी मुकदमे के कैद करने के लिए अधिकार मिल गया था| इससे राष्ट्रव्यापी अशांति पैदा हो गई| यहाँ तक कि महात्मा गांधी ने रौलेट एक्ट के विरोध में सत्याग्रह शुरू कर दिया|

7 अप्रैल, 1919 को, गांधी जी ने सत्याग्रही नामक एक लेख प्रकाशित किया, जिसमें रौलेट अधिनियम का विरोध करने के तरीकों का वर्णन किया गया था| ब्रिटिश अधिकारियों ने गांधी जी और सत्याग्रह में भाग लेने वाले अन्य नेताओं को पंजाब में प्रवेश करने से रोकने और आदेशों की अवहेलना करने पर उन्हें गिरफ्तार करने के आदेश जारी कर दिए| पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर (1912-1919), माइकल ओ’ड्वायर ने सुझाव दिया कि गांधी को बर्मा निर्वासित कर दिया जाए, लेकिन उनके साथी अधिकारियों ने इसका विरोध किया क्योंकि उन्हें लगता था कि इससे जनता में अधिक आक्रोश पैदा हो सकता है| हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक रहे दो प्रमुख नेताओं डॉ सैफुद्दीन किचलू और डॉ सत्यपाल ने अमृतसर में रौलेट एक्ट के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया| 09 अप्रैल, 1919 को, राम नवमी का जश्न मनाया जा रहा था| माइकल ओ’ड्वायर ने डिप्टी कमिश्नर इरविंग को डॉ सत्यपाल और डॉ किचलू को गिरफ्तार करने के आदेश जारी कर दिए| इरविंग जानता था कि इससे लोगों का विरोध प्रदर्शन होगा और वह यह भी जानता था कि इनमें से कोई भी लोकप्रिय नेता हिंसा का पक्षधर नहीं है| फिर भी उसने, 10 अप्रैल की सुबह दोनों नेताओं को अपने घर पर आमंत्रित किया और उन्हें पुलिस एस्कॉर्ट के तहत धर्मशाला की ओर निर्वासित कर दिया|

10 अप्रैल, 1919 को, नाराज प्रदर्शनकारियों ने अपने दोनों नेताओं की रिहाई की मांग करने के लिए उपायुक्त के आवास तक मार्च किया| यहां उन पर बिना किसी उकसावे के फायरिंग की गई| कई लोग घायल हो गए और मारे गए| प्रदर्शनकारियों ने लाठियों और पत्थरों से जवाबी कार्रवाई की और उनके रास्ते में आए किसी भी अंग्रेज पर हमला करने लगे| अमृतसर के ये दोनों नेता यहां की जनता के बीच काफी लोकप्रिय थे। इन गुस्साए लोगों ने रेलवे स्टेशन, तार विभाग सहित कई सरकारी दफ्तरों को आग के हवाले कर दिया. तार विभाग में आग लगाने से सरकारी कामकाज को काफी नुकसान पहुंचा था, क्योंकि इसी के माध्यम से उस वक्त अफसरों के बीच संचार हो पाता था. इस हिंसा के कारण तीन अंग्रेजों की हत्या भी हो गई थी. इन हत्याओं से सरकार काफी खफा थी।

डायर को सौंपी गई अमृतसर की जिम्मेदारी
अमृतसर के बिगड़ते हालातों पर काबू पाने के लिए भारतीय ब्रिटिश सरकार ने इस राज्य की जिम्मेदारी डिप्टी कमेटीर मिल्स इरविंग से लेकर ब्रिगेडियर जनरल आर.ई.एच डायर को सौंप दी थी और डायर ने 11 अप्रैल को अमृतसर के हालातों को सही करने का कार्य शुरू कर दिया. पंजाब राज्य के हालातों को देखते हुए इस राज्य के कई शहरों में ब्रिटिश सरकार ने मार्शल लॉ लगा दिया था. इस लॉ के तहत नागरिकों की स्वतंत्रता पर और सार्वजनिक समारोहों का आयोजन करने पर प्रतिबंध लग गया था।

मार्शल लॉ के तहत, जहां पर भी तीन से ज्यादा लोगों को इकट्ठा पाया जा रहा था, उन्हें पकड़कर जेल में डाला दिया जा रहा था. दरअसल इस लॉ के जरिए ब्रिटिश सरकार क्रांतिकारियों द्वारा आयोजित होने वाली सभाओं पर रोक लगाना चाहती थी. ताकि क्रांतिकारी उनके खिलाफ कुछ ना कर सकें। 12 अप्रैल को सरकार ने अमृतसर के अन्य दो नेताओं को भी गिरफ्तार कर लिया था और इन नेताओं के नाम चौधरी बुगा मल और महाशा रतन चंद था. इन नेताओं की गिरफ्त