हम सब ने अपने व्हाट्सऐप इनबॉक्स में वो फॉर्वर्ड मैसेज देखा होगा जो दावा करता है कि दुनिया का अजूबा ताज महल असल में प्राचीन शिव मंदिर ‘तेजो महालय है. वैसे हर बार हमने इसे एक और अफवाह मानकर खारिज कर दिया था. लेकिन जब इसी विवादित कथा पर आधारित फिल्म द ताज स्टोरी रिलीज हुई और इसमें परेश रावल जैसे कद के कलाकार शामिल हुए, तो इसे नजरअंदाज करना नामुमकिन हो गया.
परेश रावल की फिल्म ‘द ताज स्टोरी’ एक ऐसी बहस को फिर से जिंदा करने की कोशिश है, जो भारत के इतिहास और आस्था के चौराहे पर बरसों से खड़ी है. फिल्म में परेश रावल का किरदार, आगरा का टूर गाइड विष्णु दास, ये कहते हुए नजर आता है कि ये सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि एक ‘देश का मुद्दा’ है. लेकिन सवाल ये नहीं है कि ताजमहल प्यार की निशानी है या नहीं. सवाल ये है कि जिस नींव पर हमारा इतिहास खड़ा है, क्या उस नींव को एक बार फिर टटोलने की जरूरत है? आइए इस पर विस्तार से बात करते हैं.
कहानी
फिल्म की कहानी का सारा दारोमदार आगरा के एक आम टूर गाइड, विष्णु दास (परेश रावल) पर टिका है. विष्णु दास रोज टूरिस्ट को ताजमहल की रोमांटिक कहानी सुनाता है—मुमताज के लिए शाहजहां का प्रेम-प्रतीक. लेकिन इस गाइड के दिमाग में एक दिन ऐसा ऐतिहासिक तूफान उठता है कि वो तय कर लेता है,”अब बस! जो किताबों में पढ़ाया गया, वो गलत है! हम तो ताज महल की असली सच्चाई साबित करके रहेंगे!’ और ये सच्चाई साबित करने के लिए विष्णु दास साहब सीधे कोर्ट में एक जनहित याचिका (PIL) दायर कर देते हैं. उनका दावा सीधा, मगर धमाकेदार है कि ताजमहल, जिसे मकबरा समझा जाता है, वो दरअसल एक प्राचीन जगह है और ये जगह हिन्दू राजा ने बनाई है. बात यहीं नहीं रुकी.
इस फिल्म में परेश रावल, अपने ट्रेडमार्क अंदाज में एक डायलॉग भी कहते हुए नजर आते हैं,”जब हर बात पर डीएनए टेस्ट हो सकता है, तो ताजमहल का भी डीएनए टेस्ट कराओ! पता चल जाएगा कि ये प्यार का प्रतीक है या फिर किसी पुरानी इमारत पर लीपापोती!” यानी, कहानी को कोर्टरूम के पिंजरे में बंद करके, डायरेक्टर ने इतिहास के सबसे विवादित पन्नों को कुरेदने की पूरी तैयारी कर ली है.अब ये फिल्म किस तरह से आगे बढ़ती है, ये जानने के लिए आपको थिएटर में जाकर ‘द ताज स्टोरी’ देखनी होगी.
जानें कैसी है फिल्म
फिल्म के प्लॉट की बात करें तो ये एक ऐसा विषय जिसे जानने की उत्सुकता तो लोगों में है. फर्स्ट हाफ में एक आम टूर गाइड का सिस्टम से लड़ना, ताजमहल के ‘असली इतिहास’ के लिए उसका अदालत का दरवाजा खटखटाना हमें अच्छा लगता है. क्योंकि यहां एक साधारण आदमी को ‘बागी’ बनते दिखाया गया है और ऐसी कहानी हम सभी को अच्छी लगती है. लेकिन असली परीक्षा शुरू होती है दूसरे हाफ में, जब कहानी कोर्टरूम ड्रामा का रूप लेती है और यहीं फिल्म की नैया डगमगा जाती है.
निर्देशन और लेखन
तुषार गोयल इस फिल्म के राइटर और डायरेक्टर हैं. फिल्म में कोर्टरूम की जिस बहस को तेज, दमदार और दिलचस्प होना चाहिए था, उसे निर्देशक ने बिलकुल ही हल्का दिखाया है. फिल्म में बेशक इतिहासकारों और पुराने ग्रंथों का हवाला दिया गया है, लेकिन उनका प्रस्तुतीकरण इतना दमदार नहीं है कि हमें इसके साथ बांधे रखे. उम्मीद तो किसी सॉलिड कहानी की थी, लेकिन ये कहानी तो सिर्फ लाउड डायलॉग और वन-लाइनर्स के शोर में दबकर रह जाती है.
एक्टिंग
द ताज स्टोरी का सारा भार अकेले परेश रावल के मजबूत कंधों पर है. उनकी एक्टिंग आज भी लाजवाब है, लेकिन विष्णु दास के रूप में वो जाने पहचाने से लगते हैं. इस तरह के ‘आम आदमी-हीरो’ वाले किरदार में उनकी पुरानी छाप दिखती है, जिससे नयापन गायब है. उनके व्यंग वाले डायलॉग और कोर्टरूम में उनकी तरफ से कसे जाने वाले ताने एक गंभीर ऐतिहासिक बहस को कई बार अनजाने में हास्यस्पद बना देते हैं, जिससे फिल्म की गंभीरता कम हो जाती है. वहीं, जाकिर हुसैन (विपक्षी वकील) जैसे मंजे हुए कलाकार को इस फिल्म कमजोर लेखन का शिकार होना पड़ा है, जिससे कोर्टरूम की टक्कर फीकी पड़ जाती है. अमृता खानविलकर को भी एक डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर के तौर पर अपनी प्रतिभा दिखाने का सही मौका नहीं मिला.
देखें या न देखे
‘द ताज स्टोरी’ एक ऐसा विषय उठाती है जो सीधे हमारे देश के इतिहास और वर्तमान आस्था से जुड़ा है, लेकिन सवाल है कि क्या ये फिल्म अपने मकसद में कामयाब होती है. दरअसल इस फिल्म में कई ऐसी बातें हैं जो आपको निराश कर सकती हैं.
फिल्म की सबसे बड़ी समस्या ये है कि ये इतिहास की खोज से भटककर अनवांटेड ड्रामा में उलझ जाती है. ऐतिहासिक सच्चाई पर जोर देने के बजाय, कहानी में जबरन धार्मिक एंगल और बनावटी ट्विस्ट ठूंसे गए हैं, जो बहुत फोर्स्ड लगते हैं. जब कोई फिल्म अपनी मुख्य बहस को छोड़कर केवल आस्था और भावनाओं को उकसाने पर ध्यान केंद्रित करती है, तो उस पर प्रोपोगंडा होने का लेबल लगना स्वाभाविक है. यही वजह है कि अगर आप एक निष्पक्ष और इंटरेस्टिंग कोर्टरूम ड्रामा वाली फिल्म देखने की उम्मीद कर रहे हैं, तो ये आपको निराश करेगी.
165 मिनट की ये लंबी फिल्म बड़े-बड़े दावे करती है कि वो ‘सत्य’ सामने लाएगी, लेकिन इसका एक्सक्यूशन बहुत ही कमजोर है. लाउड डायलॉग और कमजोर स्क्रिप्ट के चलते ये फिल्म महज एक शोरगुल लगती है. ऐसा शोर जहां आवाज तो बहुत है, पर असर कुछ भी नहीं. हालांकि परेश रावल के लिए ये फिल्म देख सकते हैं. फिल्म की सिनेमैटोग्राफी कमाल की है, जिसने ताजमहल की भव्यता को खूबसूरती से कैद किया है. फिल्म में AI का इस्तेमाल इसे इंटरेस्टिंग बनाता है.














